Monday 27 March 2017

एक् सुबह की बात

अखबार हाथ में ले प्रातः, मैं पैर पसारे बैठ गया
फिर लगा ताकने पन्नों को, लिखा था जो काला सफेद
कुछ अर्थ निकल पाया उन‌का, बुद्धि में हलचल शुरू हुई
गति बढ़ी रुधिर की अन्दर फिर, तन मन ने तब करवट‌ बदली
तो सावधान हो पढ़ने लगा, संदेश भरे उसमें जितने
कुछ उत्तेजित करते मुझको, कुछ सावधान करते मुझको
कुछ‌ व्याकुल‌ सा भी कर देते, चिन्ता को देते जो उभार
इस तरहं से उठ कर हर प्रातः, पढ़ता था मैं इन पन्नों को
अखबार पढ़ूँ मैं हर प्रातः, पर क्या उससे मतलब निकला
कुछ रँग भरे है वह मन में, कुछ रँग भरे है वह तन में
कभी रक्त वर्ण के रँग भरे, कुछ हरे भरे भी हैं जिनमें
मैं कौन जो रँगो को भरता, और रँग कहाँ पर हूँ भरता
इतना पर निश्चित हुआ मुझे, कि र‌ँग सदा हूँ मैं भरता
तो फिर क्यों न रँग भरूँ इसमें जो सब रँगों से प्यारे हों
वह रँग जो हों अद‌भुत अपूर्व, जिनका कोई सानी न हो
तो पकड़ तूलिका ली मैंने, और लगा मैं रँगों को भरने
बुद्धि में, मन में और तन में, और प्राणों में भी रँग भरे
ऐसे अदभुत वह दिव्य रँग, जिनका वर्णन न कर पाऊँ
कैसी वह तूलिका थी मेरी, कैसे कैसे वह रँग भरे
इनको कैसे कह दूँ मुख से, निकले थे वह अन्तर्मन से
वह दिव्य तूली थी ओउम् नाम, वह दिव्य रँग उसके गुण थे
सन्ध्या के गुलदस्ते में जो, ऋषियों ने सजा दिये कब से
जब लगा मैं रँगों को भरने, चित्त के हर कण में रँग भरे
उन सतरँगी रँगों से फिर, धब्बे व दाग सब दूर किए
भरते भरते फिर रँग सभी, मैं खुद सतरँगी बन बैठा
उस प्रियतम प्यारे के रँग में, अनजाने खुद को रँग बैठा ||

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