Monday 27 March 2017

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः स्वः
तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्यः धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात्

गायत्री मंत्र संक्षेप में

गायत्री मंत्र (वेद ग्रंथ की माता) को हिन्दू धर्म में सबसे उत्तम मंत्र माना जाता है. यह मंत्र हमें ज्ञान प्रदान करता है. इस मंत्र का मतलब है - हे प्रभु, क्रिपा करके हमारी बुद्धि को उजाला प्रदान कीजिये और हमें धर्म का सही रास्ता दिखाईये. यह मंत्र सूर्य देवता (सवितुर) के लिये प्रार्थना रूप से भी माना जाता है.
हे प्रभु! आप हमारे जीवन के दाता हैं
आप हमारे दुख़ और दर्द का निवारण करने वाले हैं
आप हमें सुख़ और शांति प्रदान करने वाले हैं
हे संसार के विधाता
हमें शक्ति दो कि हम आपकी उज्जवल शक्ति प्राप्त कर सकें
क्रिपा करके हमारी बुद्धि को सही रास्ता दिखायें

मंत्र के प्रत्येक शब्द की व्याख्या

गायत्री मंत्र के पहले नौं शब्द प्रभु के गुणों की व्याख्या करते हैं
ॐ = प्रणव
भूर = मनुष्य को प्राण प्रदाण करने वाला
भुवः = दुख़ों का नाश करने वाला
स्वः = सुख़ प्रदाण करने वाला
तत = वह, सवितुर = सूर्य की भांति उज्जवल
वरेण्यं = सबसे उत्तम
भर्गो = कर्मों का उद्धार करने वाला
देवस्य = प्रभु
धीमहि = आत्म चिंतन के योग्य (ध्यान)
धियो = बुद्धि, यो = जो, नः = हमारी, प्रचोदयात् = हमें शक्ति दें (प्रार्थना)

एक् सुबह की बात

अखबार हाथ में ले प्रातः, मैं पैर पसारे बैठ गया
फिर लगा ताकने पन्नों को, लिखा था जो काला सफेद
कुछ अर्थ निकल पाया उन‌का, बुद्धि में हलचल शुरू हुई
गति बढ़ी रुधिर की अन्दर फिर, तन मन ने तब करवट‌ बदली
तो सावधान हो पढ़ने लगा, संदेश भरे उसमें जितने
कुछ उत्तेजित करते मुझको, कुछ सावधान करते मुझको
कुछ‌ व्याकुल‌ सा भी कर देते, चिन्ता को देते जो उभार
इस तरहं से उठ कर हर प्रातः, पढ़ता था मैं इन पन्नों को
अखबार पढ़ूँ मैं हर प्रातः, पर क्या उससे मतलब निकला
कुछ रँग भरे है वह मन में, कुछ रँग भरे है वह तन में
कभी रक्त वर्ण के रँग भरे, कुछ हरे भरे भी हैं जिनमें
मैं कौन जो रँगो को भरता, और रँग कहाँ पर हूँ भरता
इतना पर निश्चित हुआ मुझे, कि र‌ँग सदा हूँ मैं भरता
तो फिर क्यों न रँग भरूँ इसमें जो सब रँगों से प्यारे हों
वह रँग जो हों अद‌भुत अपूर्व, जिनका कोई सानी न हो
तो पकड़ तूलिका ली मैंने, और लगा मैं रँगों को भरने
बुद्धि में, मन में और तन में, और प्राणों में भी रँग भरे
ऐसे अदभुत वह दिव्य रँग, जिनका वर्णन न कर पाऊँ
कैसी वह तूलिका थी मेरी, कैसे कैसे वह रँग भरे
इनको कैसे कह दूँ मुख से, निकले थे वह अन्तर्मन से
वह दिव्य तूली थी ओउम् नाम, वह दिव्य रँग उसके गुण थे
सन्ध्या के गुलदस्ते में जो, ऋषियों ने सजा दिये कब से
जब लगा मैं रँगों को भरने, चित्त के हर कण में रँग भरे
उन सतरँगी रँगों से फिर, धब्बे व दाग सब दूर किए
भरते भरते फिर रँग सभी, मैं खुद सतरँगी बन बैठा
उस प्रियतम प्यारे के रँग में, अनजाने खुद को रँग बैठा ||